अलीगढ़
जैसा
कि मैंने अपने
पिछले लेख में
लिखा कक्षा 8 करने
के बाद मेरे बाबाजी
ने मुझे जीजी-पिताजी
के पास रहने के
लिये भेज दिया।
मैं शिकोहाबाद
से अलीगढ़ आ गया।
पिताजी अलीगढ़
जनपद के जिलाधीश
थे। जिलाधीश जनपद
का सबसे उच्च अधिकारी
होता है। उसकी
समाज में बहुत
इज्जत होती है।
अलीगढ़ के जिलाधीश
का निवास शहर का
विशेष स्थान माना
जाता था। जैसा
मुझे याद पड़ता
है उसके मुख्य
दरवाजे के सामने
घन्टाघर था। वहाँ
से करीब 100 मी अन्दर की सड़क सफर तय करने
के बाद जिलाधीश
का बंगला दिखता
था। मुझे उन दिनों
ऐसा लगता था कि
जिलाधीश को रुतबा उसके बहुत
से चपरासी और अन्य
कर्मचारी जैसे
तैनात सुरक्षा
कर्मी, जमादार, अनगिनत
मालीयों से मिलता
था। पिताजी के
मुख्य चपरासी का
नाम याकूब था।
वह देखने मैं मुगल
सेनापती से कम
नहीं था। साफा
और चमचमाती वर्दी
में ही दिखता था।
जब पिताजी आवाज
देते थे, “याकूब”, वह
जवाब देता था, “हाजिर
हुआ हुजूर”।
मैंने
ऐसा ताम-झाम
शिकोहाबाद में
नहीं देखा था।
मैं उस समय 12 साल
का था। मेरी भाषा
शायद ग्रामीण थी।
जैसे सिर को चाँद, पंक्चर
को पिन्चर कहता
था। शिकोहाबाद
में कभी किसी बड़े
ने ऐसी त्रुटियों
पर ध्यान नहीं
दिया था। पिताजी
को झुंझलाहट और
मेरे ऊपर गुस्सा
भी आता था। मैं
लाचार था। मेरी
समझ में नहीं आता
था कि मैं क्या
गलती कर रहा हूँ।
एक
दिन मैं पोर्टिको
मैं रखी जीप गाड़ी
में बैठ कर उसके
स्टयरिंग वील को
घुमाकर और मुँह
से कार चलाने की
आवाज कर खेल रहा
था। शायद मैंने
खाली कच्छा ही
पहन रखा था। पिताजी
बाहर आए और मेरे
कान पकड़ कर जीप
से बाहर किया।
शायद पीटा भी।
लगभग
60 साल के
बाद भी यह घटना मुझे कल बीती
सी लगती है।
मेरा
शहर के सरकारी
विद्यालय में कक्षा 9 में
दाखिला करा दिया
गया। इस स्कूल
और जिलाधीश
की कोठी के मुख्य
दर्वाजे के बीच
में घन्टाघर, जिसका
मैं जिक्र कर चुका
हूँ,
स्थित था।
इस विद्यालय के
अध्यापक मेरा विशेष
ध्यान रखते थे।
शायद इसलिये कि
मैं जिलाधीश का
पुत्र था। मैं
अच्छा विद्यार्थी
तो रहा हूंगा क्योंकि
यह विद्यालय मेरे
शिकोहाबाद के विद्यालय जैसा ही था
और पढ़ाने का माध्यम
भी हिन्दी थी।
गणित में तो कुशल
था ही और मन लगा
कर पढ़ता ही था।
मेरी
एक और उपल्बधि
हुई। मैंने साइकिल
चलानी सीख ली।
शिकोहाबाद में
भी मैंने साइकिल
चलाना सीखने का
प्रयास किया था।
वहाँ एक तो साइकिल
बड़ी थी और गली
भी पथरीली थी।
गिरता था और चोट
भी लगती थी। अलीगढ़
में पिताजी के
एक मित्र श्री बालेश्वर
नाथ के
पुत्रों के पास
एक छोटी साइकिल
थी। उस साइकिल
पर मैं पाँच मिन्टों
में आसानी से साइकिल
चलाने लग गया! अब
मेरी खुशी का तो
कोई अन्त नहीं
रहा। हर समय चपरासियों
की साइकिल चलाता
था। साइकिल पर
जगह-जगह जाने
की कल्पना करता
था। अब मैं बहुत
खुश था।
स्कूल
की एक घटना जो अब
भी याद है लिखता
हूं। विज्ञान में
मेंढक की एनाटमी
पढ़ाई गयी। मैंने
इसकी तस्वीर भी
बनाई। मेरे एक
सहपाटी ने कहा
उसके पास डिसैक्सन
बौक्स है। हमारे
घर में एक टैंक
था। इस टैंक में
मैं अपने छोटे
भाई शचीन्द्र और
नरेन्द्र के साथ
नहाता भी था। उस
टैंक में बहुत
सारे मेंढक भी
थे। वे जोर-जोर
से टर्र-टर्र
आवाज करते थे।
मेरे मित्रों ने
कहा कि वे एक मेंढक पकड़ लेंगे
और उसका मैं उनके
इन्सट्रूमैंट
से डिसैक्सन कर
सकता हूं। मैंने
कहा कि हमारे पास
क्लोरोफौर्म नहीं
है। मेरे मित्रों
ने कहा कि मेंढक
को मिट्टी का तेल
पिला देंगे। वह
बेहोश हो जायेगा
और मैं उसका आसानी
से डिसैक्सन कर
सकूंगा । यह प्रयोग
हर तरह से नाकामयाब
रहा। मेंढक की
दुख भरी आवाज सुनने
के बाद मैंने बायोलौजी
नहीं पढ़ने का
निर्णय किया।
डिसैक्सन
का मुद्दा मेरे
जीवन मैं एक बार
फिर आया जब मनेका
गाँधी ने पाँच हजार
विद्यार्थियों
के साथ 1994 में
राष्ट्रीय शैक्षिक
अनुसंधान और प्रशिक्षण
परिषद् में धरना
देने की धमकी दी। 1994 में मैं राष्ट्रीय शैक्षिक
अनुसंधान और प्रशिक्षण
परिषद् का संयुक्त
निदेशक था। मनेका
गाँधी मुझसे मिलने
आयीं। उन्होंने
कहा कि शरीर की
रचना जानने के
लिये किसी जीव-जन्तु
की हत्या करना
बहुत अनुचित है।
उन्होंने कहा कि
अब computer software
मिल रहे हैं
जिनसे विद्यार्थी
बिना किसी मेंढक
का डिसैक्सन करे शरीर की रचना
सीख सकते हैं।
मैं श्रीमती मनेका
गाँधी के विचारों
से सहमत था। मैंने
उनसे निवेदन करा
कि पाठ्यक्रम शिक्षा-विद्
और वरिष्ठ शिक्षक
निर्धारित करते
हैं। मुझे इस विषय
पर पाठ्यक्रम समिति
की सलाह लेनी होगी।
मैं कोई आश्वासन
नहीं दे सकता।
उन्होंने कहा कि
वह चार दिन बाद
पाँच हजार विद्यार्थियोंके
साथ आयेंगी और
मैं सभी बच्चों
के लिये जलपान
की व्यवस्था करूँ। मनेका गाँधी
पाँच हजार बच्चों
के साथ राष्ट्रीय शैक्षिक
अनुसंधान और प्रशिक्षण
परिषद् धरना देने
नहीं आयीं।
अलीगढ़
प्रवास की सबसे
मधुर स्मृति है
मौसाजी के सम्पर्क
में आना। मौसाजी का तबादला
वाराणसी से अलीगढ़
जनपद के गौन्डा
गाँव में हो गया
था। वे गौन्डा
के सरकारी चिकित्सालय
के डाॅक्टर नियुक्त
हुए थे। मौसाजी
हंसमुख और सरल
व्यक्ति थे। मुझे
उनसे बहुत प्यार
मिला। उनके समीप
पहुंच सकता था।
मौसाजी मुझे प्रोत्साहित
करते थे। अपने
मित्रों से कहते
थे कि अमरनाथ बहुत
लायक है और उन्नति
करेगा। एक बार
मौसी-मौसाजी दिनेश
के साथ अलीगढ़
आये। दिनेश
मौसी-मौसाजी का
पहला बच्चा था।
वह उस समय दो साल
से थोड़ा कम रहा
होगा। मेरे लिए
तो खिलौना था।
साइकिल में कन्डी
लगा कर उसे घुमाता
था। मौसी कबीर
के दोहों का अर्थ
समझाती थी। एक
बार शचीन्द्र और
नरेन्द्र के साथ
मौसी
- मौसाजी
के पास गौन्डा
गया। चिकित्सालय
के पास ही मौसा
जी का निवास था।
शहर की कोई सुविधायें
तो वहाँ नहीं थी
पर मौसाजी खुश
रहते थे। उनकी
वहाँ बहुत इज्जत
थी। वहाँ के विद्यालय
के प्राध्यापक
गणित के शिक्षक
थे। मौसाजी ने
मुझे उनसे मिलवाया।
मेरी गणित की क्षमता
से वह प्रभावित
हुये। और मुझे
आशीर्वाद दिया।गौन्डा
में कुछ दिन रहना
मेरे जीवन की मधुर यादगार
है। किसी गाँव
में रहने का यह मेरा पहला
और आखिरी अवसर रहा है।
अलीगढ़
में बंगाली खाना
भी पहली बार खाया।
पिताजी के गुरू
थे स्वामी शान्तानन्द
जी। स्वामी शान्तानन्द
जी जीजी-पिताजी
के पास कुछ दिन
रहने के लिए आए।
कलकत्ते से स्वामीजी
के संन्यास से
पूर्व की पत्नी, जिन्हें
हम सब माताजी कहते
थे, आयीं। स्वामीजी
और माताजी से एक
बार पहले नरेन्द्र
नगर में जब पिताजी
टेहरी-गढ़वाल
के जिलाधीश थे
मिल चुका था। स्वामीजी
और माताजी भी पिताजी
के साथ उनके दौरे
पर टेहरी से प्रतापगढ़
गए थे। हम सब बच्चे
भी साथ गए थे। उस
यात्रा की पूरी
याद है। मैं आठ
साल का था। नरेन्द्र
तीन साल के थे।
प्रतापगढ़ के राजमहल
में ठहरे थे। जब
हम बच्चे स्वामीजी
और माताजी से आशीर्वाद
लेने गये नरेन्द्र
ने अपने दो छोटे-छोटे
हाथ आगे फैला दिए।
माताजी बहुत खुश
हुँयी। उन्होंने
नरेन्द्र के हाथों
में एक-एक सिक्का
रख दिया और कहा
टाका-टाका। नरेन्द्र
हमेशा के लिए माताजी
के टाका-टाका
बन गए। माताजी
ने अलीगढ़ में
कड़ुवे तेल से
तरह-तरह का बंगाली खाना
बनाया। पहले तो
यह खाना अजीब सा
लगा। बाद में अच्छा
लगने लगा। एक मिठाई
बनायी। जिसका नाम
पाटी-शोब्दा था।
उसका स्वाद तो
याद नहीं - पर
नाम जीवन भर के
लिए याद हो गया।
अलीगढ़
में नुमाइश का
मेला लगता था।
वह उत्तर प्रदेश
का एक महत्वपूर्ण
कार्यक्रम था।
दूर-दूर से इस
नुमाइश को देखने
लोग अलीगढ़ आते
थे। नुमाइश के
प्रमुख जिलाधीश
का एक ठाठ-बाठ
से सजा तम्बू होता
था। मुझे याद है
बाबाजी के साथ
उनके मित्र दीनानाथ
बाबाजी कलकत्ते
से नुमाइश देखने
आये। पिताजी परिवार
के सबसे सम्मान्नीय
सदस्य थे। पिताजी
पर सबको नाज था
कि भोला नाथ एक
महत्वपूर्ण सरकारी
अफसर हैं। मैंने
नुमाइश में जैमनी
सरकस देखा। सरकस
की घूमती हुई नीले
रंग की सर्चलायिट
आज भी उन दिनों
की याद दिलाती
है।
एक
बार पिताजी अपने
साथ कार से दिल्ली
ले गए। दिल्ली
की चकाचौंध से
अचम्भे में रह
गया। चौराहों की
जगह गोल चक्कर
और रायसीना के
भव्य भवनों को
देख कर मन में सवाल
आया कि क्या कभी
इस महानगर में
रहने का अवसर मिलेगा! पिताजी
अपने मित्र श्री
अम्बा दत्त पांडे
और उनकी पत्नी
श्रीमती लक्ष्मी
पांडे से मिलवाने
उनके मीनाबाग वाले
फ्लैट ले गए। श्री
अम्बा दत्त पांडे श्री गोविन्द
वल्लभ पंथ, जो
गृह मंत्री थे, के
निजी सचिव थे।
हम बच्चों का परिचय
उनसे हमारे ताऊजी
और ताईजी बुला
कर कराया गया।
उन्होंने जीवन
भर ताऊजी-ताईजी
का प्यार दिया।
पहली बार उनके
पुत्र अमिताभ से
मिलना हुआ।
वहाँ
से वापिस आने के
बाद पिताजी का
तबादला दिल्ली
हो गया। आगे का
वर्णन दिल्ली पहुँचने
के बाद।