मेरा बचपन
मेरा नाम
अमर नाथ माहेश्वरी
है। मेरा जन्म
10 मई 1943 को मेरठ
शहर में हुआ था।
मेरे पिताजी स्व. भोला
नाथ माहेश्वरी
भारत सरकार के अफ़सर थे।
उनका तबादला समय-समय पर
होता रहता था, इसलिये
उन्होंने यही उचित
समझा कि मैं अपने
दादाजी के पास
रहकर पढ़ूँ। मुझे
अपने बचपन की धुंधली
सी स्मृतियाँ हैं।
मेरा बाल्यकाल
बहुत लाड़-चाव से
बीता लेकिन मुझे
यह नहीं समझ आता
था कि मेरे छोटे
भाई और बड़ी बहन
क्यों मेरे पिताजी
और माँ, जिन्हें हम
जीजी कहते हैं, के पास
रहते हैं और मैं
क्यों दादाजी, जिन्हें
हम बाबाजी कहते
थे, और दादीजी, जिन्हें
हम अम्माजी कहते
थे, रहता था। मेरे
पिताजी गुस्सैल
स्वभाव के थे और
उनसे मुझे डर लगता
था। इसलिये मुझे
यही ठीक लगा कि
बाबाजी और अम्माजी
के पास रहने में
ही भलाई है। अम्माजी
और बाबाजी उत्तर
प्रदेश के एक कसबे शिकोहाबाद
में रहते थे। शिकोहाबाद
गंदा कसबा था।
वहाँ सूखे पाखाने
थे और वहाँ की गलियाँ
गीली और गंदी थीं। लेकिन घर के
बाहर एक बड़ा मैदान
था वहाँ पर मौहल्ले
के बच्चे गिल्ली-डंडा
और कंचे खेलते
रहते थे। मेरे
एक चाचा को पतंग
उड़ाने और कबूतर पालने
का शौक था। वह चाचा
मेरे आदर्श व्यक्ति
थे। मुझे पाठशाला
जाना भी पसंद नहीं
था - एक तो गंदी गलियों
से जाना होता था
और दूसरा पाठशाला
के अध्यापक जिनका
नाम पंडित हरस्वरूप
था, बहुत ही भयानक
इन्सान थे - वह बेदर्दी
से एक मोटे डंडे
से विद्यार्थियों
को पीटते थे। उकड़ूँ
बिठाकर मुर्गा बनाना
तो साधारण सी बात
थी। मुझे याद पड़ता
है कि एक दिन पंडित हरस्वरूप
ने एक लड़के को
मुर्गा बनाकर मोटी
रस्सी से बांधा
और पाठशाला की
छत से लटका दिया।
वह भयानक दृश्य
जब सोचता हूँ रोंगटे
खड़े हो जाते हैं।
मैं पहला पोता
था। घर में
सबही मेरे से उम्र
में बड़े थे। बड़े
लोगों की धारणा
थी कि बिना पिटे
बच्चे पढ़-लिख नहीं
सकते। मेरे से
यह सुनकर कि पाठशाला
में मास्टर बेदर्दी
से पीटते हैं मेरे
चाचा बहुत खुश
होते। मुझे अपने
छोटे होने पर बहुत
दुःख होता था और
मन करता था कि किसी
तरह मैं बड़ा क्यों
नहीं होजाता जिससे
स्कूल जाने का
झंझट ही मिट जाए
और मास्टरों से
पिटना भी बन्द
हो जाए। एक दिन पंडित हरस्वरूप
के सहयोगी मास्टरजी
ने मुझे डंडे से
बहुत पीटा और वो
पीटते-पीटते बोलते
रहे कि पीट-पीट कर
तेरे बाप को डिप्टी
कनस्तर बनाया और तुझे भी
पीट-पीट कर डिप्टी कनस्तर बनाउँगा।
मैं उनसे विनती
करता रहा कि
मुझे डिप्टी
कनस्तर नहीं बनना- मुझे
और नहीं पीटिये।
बहुत बाद में समझ
आया कि डिप्टी
कनस्तर से उनका मतलब डिप्टी कलैक्टर
से था, जो उस समय मेरे
पिताजी रहे होंगे।
अब मैंने सोचा
कि शिकोहाबाद के
स्कूल के मास्टरों
से पिटने से अच्छा तो
पिताजी से ही पिटना अच्छा
होगा। घर आकर मैंने
अपने बाबाजी से
कहा कि मुझे डिप्टी कनस्तर नहीं बनना- आप मुझे
मेरी जीजी के पास
भेज दीजिए। वह
पहले तो हँसे और
कहा कि अच्छा तुम
स्कूल नहीं जाना
और घर पर ही पढ़ना।
यह सुझाव मुझे
बहुत भाया क्योंकि
अब मैं सारा दिन
मैदान में अपने
मित्रों के साथ
खेल सकता था और
अपने चाचाजी के
साथ दोपहर में
पतंग उड़ा सकता
था। चाचाजी पतंग
से पेच लड़ाते
थे। अपनी पतंग
से दूसरों की पतंगें
काटना रोमांचक
खेल था। अब यही
सोचता था कि मुझे
बहुत सारे पैसे
मिलें जिनसे बहुत
पैने काँच से लिपा
माँझा खरीदूँ और
अपने चाचा की तरह
से पतंगे काटूँ।
अब मुझे शिकोहाबाद
में रहना अच्छा
लगने लगा।
एक बात और याद
आती है। मैं गरमी
की छुट्टियों में जीजी-पिताजी
के पास रहने जाता
था। ऐसा याद पड़ता
है कि मैं जितने
पैसे लेकर उनके पास जाता
जीजी उनको दुगना
करके मुझे
शिकोहोबाद वापिस
भेजती थीं। इस
कारण मुझे जो पैसे
समय-समय पर बुआयें और बाहर से
आए लोग जाते समय
देते थे पतंग उढ़ाने
पर ही नहीं खर्च
कर सकता था।
पतंगें फटती रहतीं
थी। उनको जोड़ने
के लिए लेही की
ज़रूरत होती थी।
लेही आटे से बनती
थी। इसलिये लेही
कच्चा खाना मानी
जाती थी।अम्माजी
की रसोई छुआ-छूत की
थी, इसलिए खाना बनाने
वाले महाराज से
लेही बनवाने के
लिए खूब खुशामद
करनी पड़ती थी
।
एक दिन बाबाजी
ने लाला चाचाजी
से कहा कि अमरनाथ
के लिये मास्टर
लगवाओ। पंडित दाऊदयाल
शर्मा मेरे मास्टर
नियुक्त हुए। वे बहुत
ही अच्छे व्यक्ति
थे। मेरी गणित
की क्षमता से बहुत
प्रभावित थे। मैं
अपने आप से गणित
करता रहता था।
और बच्चों को जिन्हें
पंडित दाऊदयाल
शर्मा पढ़ाते थे
गणित कठिन विषय
लगता था और मुझे
सरल और आनन्ददायक।
हिन्दी पढ़ने का
शौक था। कहानियों
की किताबें पढ़ता
रहता था। लेकिन
हिन्दी भाषा का
व्याकरण नहीं सीखा।
स्कूल न जा कर पढ़ने
से स्वयं पढ़ना
तो सीख गया लेकिन
मेरी प्रारम्भिक
शिक्षा अधूरी रह
गयी। पाठ्यक्रम
वाली नींव नहीं
पड़ी। इससे मेरी
आगे की शिक्षा
में क्या प्रभाव
पड़ा कह नहीं सकता
लेकिन यह तो बता
सकता हूँ कि मेरे
में यह हौसला आगया
कि अपने आप कोई
भी विषय सीख सकता
हूँ। यह मेरे साथ
जीवन भर रहा।
मुझे दर्जा
5 की परीक्षा
दिलायी गई। अब
मैं घर पर और नहीं
पढ़ सकता था। मेरा
दाखिला दर्जा 6 में नारायण
इन्टर कॉलेज़ में
करा दिया गया।
लाला चाचाजी को
मेरी जन्म तिथि
नहीं मालुम थी। 7 जुलाई
को दाखिला हुआ
था इसलिए मेरी
जन्म तिथि स्कूल
के रज़िस्टर में 7 जुलाई 1944 दर्ज
हो गई। ग्यारहवीं
कक्षा के इम्तहान
के फ़ार्म भरने
के समय स्कूल ने
बताया कि मेरी
आयु कम है और मैं
परीक्षा में नहीं
बैठ सकता। पिताजी
को मेरठ जाना पड़ा
और मेरी सही जन्म
तिथि 10 मई 1943 बोर्ड
के रेकार्ड में
डल गई।
नारायण इन्टर
कॉलेज़ के अध्यापक बहुत
अच्छे थे। यहाँ
पर पिटायी से पढ़ाई
नहीं होती थी।
अब मैं क्लास में
प्रथम आने लगा।
मेरे बाबाजी भी
मुझ से खुश थे।
अपने मित्रों से
कहते कि अमरनाथ
भी भोलानाथ की
तरह पढ़ाई
में नाम करेगा
और एक दिन बड़ा
सरकारी अफ़सर बनेगा।
बाबाजी मुझे मौका
मिलने पर विद्वानों
से मिलवाते थे।
एक बार प्रदेश
के राज्यपाल के. एम. मुन्शी
मैनपुरी आये थे।
उनका भाषण सुनने
के लिए मुझे बाबाजी
कार से मैनपुरी
ले गये।
बचपन की शिकोहाबाद
से जुड़ी एक और
याद है। लाला चाचाजी
ने सोचा कि मैं
कक्षा 8 में आ गया हूँ
इसलिए मुझे कुलश्रेष्ठजी, जो डिग्री
कॉलेज में अध्यापक
थे, उनसे पढ़ना चाहिये।
मैं जब कुलश्रेष्ठजी
से मिलने गया उन्होंने
कहा कि तुम पंडित
दाऊदयाल शर्मा
के घर जमीन
पर बैठ कर पढ़ते
हो, मेरे घर में तुम
मेज़-कुर्सी पर
बैठ कर पढ़ सकोगे।
मुझे बुरा तो लगा
लेकिन मैंने कुछ
नहीं कहा। लेकिन
एक दिन उन्होंने
मेरे कान पकड़े
और कहा तुम रेखागणित
के थियोरम बिना
समझे याद करते
हो। यह लांछन मुझे
बर्दाश्त नहीं
हुआ और मैं उनके
पास दुबारा फिर
कभी नहीं गया।
शिकोहाबाद में
मेरे जीवन
में ऐसे दो व्यक्ति
आये जिनका प्रभाव
मेरे जीवन पर पत्थर
की लकीर की तरह
अंकित हो गया।
एक थे डा. ओमप्रकाश
और दूसरे थे श्री
पाठकजी। जब भी
मैं उनसे मिलता
तब वे एक ही बात
कहते कि अमरनाथ
तुम्हें शिकोहाबाद
का नाम ऊँचा करना
है।
मुझे नाटक देखने
का बहुत शौक था।
दशहरे के अन्तिम
दिन राम के राज्य
तिलक के बाद मंच
पर नाटक खेला जाता
था। चाहे कितनी
नींद आती थी पर
मैं नाटक अव्शय
देखता था। पंडित
दाऊदयाल शर्मा
दड़ीयामई गाँव, जो शिकोहाबाद
से पाँच मील दूर
था, के माध्यमिक स्कूल
के प्रधानाचार्य
हो गये थे। एक दिन
यह मालूम हुआ कि
उनके विद्यालय
में एक नाटक खेला
जायेगा। उन्होंने
कहा कि वे मुझे
साइकिल पर अपने
साथ लेजा सकते
हैं लेकिन मुझे
रात को दड़ीयामई
में ही रुकना होगा।
मैंने किसी तरह अम्माजी को
मनाया कि वे मुझे
एक रात के लिए पंडित
दाऊदयाल शर्मा
के साथ दड़ीयामई
जाने दें। वह नाटक क्या था आज
याद नहीं। आज साठ
साल बाद घर से पहली
बार एक रात बाहर
रहना याद है।
खुशी-खुशी मैं शिकोहाबाद
में बड़ा होने
लगा। मैंने आठवीं
कक्षा प्रथम आकर
पास करली। बाबाजी
खुश हुए और उन्हें
लगा कि मुझे आगे
की पढ़ाई अपने
माता-पिता के संरक्षण
में करनी चाहिये।
एक दिन मुझसे कहा
कि अब तुम अपने जीजी-पिताजी
के पास रह कर पढ़ो।
मेरे पिताजी उस
समय अलीघढ़ जनपद
के जिलाधीश थे।
मैं अलीघढ़ आगया।
इसका विवरण अगले
लेख में लिखूँगा।
अलीघढ़ से कुछ
समय बाद जीजी-पिताजी
के साथ दिल्ली
आ गया। दिल्ली
में ही रह कर मैंने
स्कूल और विश्वविद्यालय
की शिक्षा प्राप्त
की। आगे का वर्णन
मुझे मेरे बचपन
से आगे ले जायेगा।
जब मैंने यह लेख
लिखा था मेरा आगे
की जीवनी लिखने
का विचार नहीं
था। पर वह मैं लिख पाया
हूँ। बचपन के बाद
का वर्णन मेरी
जीवनी में आगे
आता है।
बाबाजी
का एक आशीर्वाद
जो सच हुआ है उसको
बता कर इस लेख को
पूरा करता हूँ।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय
में एम. एस. सी का
छात्र था। बाबाजी
की सेहत बहुत गिर
गई थी। मैं उनसे
मिलने शिकोहाबाद
गया। बाबाजी का
बहुत मन था कि मैं
अपने पिताजी की
तरह बड़ा सरकारी
अफ़सर बनूँ। लेकिन
मैंने निर्णय कर लिया था कि
मैं शोध के लिए
विदेश जाऊँगा
और अध्यापक बनूँगा।
मैंने बाबाजी के
पैर दबाते हुए
सहम कर जब उनको
बताया कि मैं किसी
विश्वविद्यालय
में अध्यापक बनूँगा
उसी समय उन्होंने
कहा तुम वायिस-चान्सलर
बनना। उनके आशीर्वाद
से मैं 1990 में कोचीन
विश्वविद्यालय
का वायिस-चान्सलर
बना।